संक्रांति का वह दिन......
मकर संक्रांति का त्योहार सूर्य के उत्तरायन होने पर मनाया जाता है जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है। मकरसंक्रांति का त्यौहार हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में शामिल है। इस त्योहार की खास बात यह है कि यह बाकी त्योहारों की तरह आगे पीछे नहीं बल्कि हर साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। पूरे भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में इस त्योहार को अलग-अलग रूप में मनाया जाता है। आंध्र-प्रदेश, केरल, कर्नाटक में इसे संक्रांति के नाम से मनाया जाता है। पंजाब व हरियाणा में इसे नई फसल का स्वागत करने के रूप में मनाया जाता है अतः इसे लोहड़ी कहते हैं वहां। असम में इसे बिहू के नाम से मनाया जाता है व तमिलनाडु में पोंगल के रूप में मनाया जाता है। उत्तर-प्रदेश के कई पूर्वी जिलों में इसे खिचड़ी के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इस दिन दाल और चावल की खिचड़ी खाना शुभ होता है इसके अलावा तिल और गुड़ का भी मकर संक्रांति पर विशेष महत्व है। तिल के लड्डू , गुड़ के लड्डू जिसे इलाहाबादी भाषा में डूढ़ी कहते हैं। बड़े चाव के साथ खाया जाता है।
हमारे प्रयागराज में तो मकर संक्रांति का बड़ा ही महत्व है प्रयागराज के गंगा नदी के किनारे एक विशाल मेला का आयोजन किया जाता है, जिसे माघ मेला कहते हैं। लाखों की भीड़ में श्रद्धालु मकर संक्रांति के इस पावन पर्व पर गंगा स्नान को प्रयागराज आते हैं। स्नान के बाद वह दान धर्म का कार्य भी करते हैं। सबसे खास बात तो इस त्यौहार की पतंग उड़ाना है जो कि भारत के गुजरात राज्य में अधिक देखने को मिलती है। यहां पर संक्रांति के दिन पतंग बाजी की प्रतियोगिता आयोजित होती है और नए-नए व अनेक प्रकार के पतंग हवा में उड़ते हुए देखने को मिलते हैं। एक कहावत बड़ी प्रचलित है कि -
"सारा तीरथ बार बार पर
गंगासागर एक बार "
जी हां! पश्चिम बंगाल मे स्थित बंगाल की खाड़ी जिसे गंगासागर भी कहते हैं, संक्रांति के दिन ढेरों श्रद्धालु वहां पहुंचते हैं और मां गंगा व भागीरथ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
| (गुजरात मैं आयोजित पतंगबाजी की तस्वीर) |
संक्रांति से जुड़ी कुछ यादें हैं जिसे मैं आपको बताना चाहता हूं। मुझे बड़ा अफसोस होता है कि यह सिर्फ अब यादें ही रह गई हैं।
जब मैं छोटा था तो संक्रांति आने पर मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता आ जाती थी यह इसलिए भी थी क्योंकि नए वर्ष के बाद यह पहला त्यौहार है। सबसे ज्यादा जो मुझे पसंद था वह तो था पतंग उड़ाना कि आज मुझे पतंग उड़ाने को मिलेगा और कोई मुझे डांटेगा भी नहीं, तिल के लड्डू तो मुझे बड़े ही प्रिय थे। हम सारे दोस्त एक बड़े मैदान में इकट्ठे हो जाते थे तब इस तरह शहरों की चकाचौंध तो थी ही नहीं सारे दोस्त नए-नए पतंग लेकर आते थे कुछ खरीद के लाते थे, तो कुछ लूट के लाते थे हम सब के पास एक टिफिन होता था जिसमें सबके घर से बने हुए तिल व गुड़ के लड्डू हुआ करते थे। हम लोग सुबह से ही पतंग उड़ाने में लग जाते थे और न जाने कितनी पतंगी हमारी फट जाती थी, कट जाती थी और न जाने कितनी पतंगे हम दूसरों की काट कर लूट लेते थे। बड़ा ही आनंद आता था। दिनभर पतंग उड़ाना जब तक कि सूरज चाचा ढल न जाए। मेरे कुछ मित्र तो रात में भी पतंग उड़ाते थे, न जाने वे रात में पतंग को कैसे देख लेते थे। घर में खुशी का माहौल रहता था और हो भी क्यों ना नए वर्ष का पहला त्यौहार जो है। दादी-दादा कड़ाके की ठंड के बाद सूरज चाचा की सुकून भरी धूप का आनंद ले रहे होते, माताजी रसोई घर में ही लगी रहती, पिताजी छुट्टी का आनंद लेते हुए अखबार के एक एक पन्ने को बड़ी ही गंभीरता से पढ़ रहे होते और साथ ही साथ आसमान में उड़ती हुई पतंगों का आनंद भी ले रहे होते, छोटे भाई-बहन अपनी ही मौज में मस्त खेल रहे होते। संक्रांति के वो क्या दिन थे लेकिन अब यह बस यादें ही बनकर रह गए हैं।
गम मुझे इस बात का नहीं है कि यह यादें हैं, गम मुझे इस बात का है कि यह यादें अब कोई बना नहीं पाएगा। क्योंकि जैसे-जैसे ही हम टेक्नालॉजी की तरफ विकसित कर रहे हैं, स्मार्ट सिटीज की तरफ अग्रसर होते जा रहे हैं वैसे-वैसे यह प्रमुख त्योहार कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं।
अब मैं आसमान की तरफ देखता हूं तो इस शहर के प्रदूषण के अलावा कुछ नहीं दिखता। आज का दिन ही ले लो, आज 14 जनवरी है संक्रांति का दिन है अभी मैं छत पर बैठा हूं यह लेख लिख रहा हूं किंतु मुझे आसमान में एक भी पतंग नहीं दिख रही मुझे हवा में उन लड्डुओं की खुशबू, य वो त्यौहार की सुगंध कहीं नहीं मिल रही। सब कुछ ऐसा ही लग रहा है जैसे एक साधारण सा दिन होता है या यूं कहूं की रविवार के दिन जैसा लग रहा है सब अपने-अपने काम में लगे हैं किसी को त्योहार की कोई परवाह ही नहीं है। भाई मैंने तो अपने हाथों से लड्डू बनाए तिल के और खाए क्योंकि मुझे वह बड़े प्रिय हैं। किंतु बाकी सब, खैर छोड़ो लिखते लिखते शायद मैने कुछ ज्यादा ही लिख दिया। लेकिन फिर भी ऐसा क्यों है। यह तो कोई पतंग उड़ा ही नहीं रहा है या तो इन बड़ी बड़ी बिल्डिंग के पीछे पतंगे छुपी है। अगर लोग नहीं मना रहे हैं तो उन्हें मनाना चाहिए और अगर वह बिल्डिंग के अंदर छुपे हैं तो उन्हें बाहर आना चाहिए। क्योंकि अगर वह त्यौहार ही नहीं मनाएंगे तो उनके पास कुछ रहेगा नहीं यादों की माला में पिरोने को जैसे अगर मैं उस समय पतंग नहीं उड़ाता और त्योहार ना मनाता तो मेरे पास भी इस लेख में लिखने के लिए कुछ भी ना होता, खैर मैं तो बड़ा खुश हूं कि मेरे पास लिखने के लिए इतनी प्यारी प्यारी यादें हैं और मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि मैं इन यादों को आपके साथ बता पा रहा हूं। आखिर में मैं यही कहूंगा कि हमें हर त्यौहार का आनंद लेना चाहिए ज्यादा नहीं थोड़ा ही मनाना चाहिए ताकि उन्हें याद करके अपने मन में मुस्कान आए आए और किसी को बताने पर दूसरों के होठों पर हंसी।
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